मौत की सजावट
ऐ मौत! तू तब आना मेरे पास
जब मेरी महफिल झमाझम जमी हो
दिल और दिलरुबा की यादें सजी हो
बहुत ही शायराना हो रहा हो शमां
लोग तो लोग, खुदा भी कर रहा हो वाहवाह
तब आना तू, सकुचाते हुए मुजरिम की तरह
कोसते हुए अपने आका को
के क्यूं भेजा तुझे उसने
मुझे यहां से ले जाने के लिए!
मैं इतराऊंगा अपने महफिल पे
और मेरे सामने हाथ जोड़े तुम
मेरे बचे उम्र की भीख मांगना
तब तेरी इज्ज़त की खातिर मैं
ये शेष जीवन छोड़ चलूंगा
ये वादा मांगकर
के फिर आऊंगा मैं
नई ऊर्जा से दुनियां को बहलाने !!
चल किताबों से रूबरू हों फिर
किताबों के सोते पन्ने ताकते हुए पूछते हैं मुझसे
कभी मोबाइल से निकल मुझे भी कर इकरार जरा
मैं ही था पहला प्यार तेरा
वही थोडा अब बांट दे जरा
आखिर बांटने से बढ़ेगा प्यार, घटेगा नहीं
तुझे भी खूबसूरत सा बदलाव नजर आएगा
मेरे पन्नों में खोकर नया संसार नज़र आएगा
मन से सवाल
ऐ मन क्यूं ढूंढता है सुख को इतना
इसी तरह तो दुख को बुलाता है तू
तेरी खातिर क्यों सहूं दुख मैं
जोर से कहता है शरीर ये मेरा,
के गर संभाल नहीं सकता है तू
अपने सुख और दुख का पलड़ा
तो मत दे मुझे बेवजह ये लफड़ा !
सोच कर सोच बदल
ये शरीर सुला दिया जायेगा जब शमशान में
तीली जला कर स्वाहा कर दिया जायेगा
मगर राख कैसे करेगा कोई तेरी सोच को
वो तो महकेगा या बदबू फैलाता जायेगा
तो छोड़ जा कुछ ऐसा जैसा कोई नहीं हो
तेरा वजूद महकता रहे बस ऐसी सोच हो
मुस्कुरा जा मौत
किसी ने कहा, अब
जीवन को सजाना है
मैने कहा हां बिल्कुल
पर चीज़ों से नहीं उतना
जितना के यादों से
खट्टे मीठे तजुर्बों से
दोस्तों से रिश्तों से
साथ बीते एहसासों से
चाय की चुस्कियों से
सैर सपाटों की दास्तां से
छोटी बड़ी कहानियों से
जो पीढियां दोहराएं!!
और सबसे ज़रूरी
अपने दुरुस्त सेहत से
कुछ बिंदास नज़रिए से
अरे, इस तरह फिर तो
जीवन को सजते सजाते
मौत भी सज जाएगी!!
मुस्करा कर आएगी और
बाहों में सुला जाएगी !!
मन ही नसीब
हां देखा है मैंने,
ये मन डरता तो है
बुरे परिणामों से
पर करता भी फिर
वैसा ही क्यों है??
अच्छा करना ज़रूरी है
अच्छे परिणाम के लिए
पर ऐसा करता क्यों नहीं है??
अब समझो ये तुम्हारे अंदर
बैठा कौन है?
शायद!
तुम्हारा ही दुश–मन!!
इसे फिर तरजीह तभी देना
जब
ये विवेक का अनुसरण करे
वरना, सिर्फ परेशान होते रहना
मत कहना फिर नसीब बुरा है!!
मन की बेवकूफियां
ये मन, और इसका भारी सा अहम
जाने कितना वहम जमा कर रक्खा है
परत दर परत उघेड़ो तो देखोगे
कितनी बेवकूफियों को सजा रक्खा है!!
उधेड़ते रहना हर वक्त
कांटेदार प्रश्नों से इन्हें
नहीं तो झेलते रहना
इनकी बेवकूफियों को
जो सिर्फ और सिर्फ
कमज़ोर और कमजर्फ
बनाती है तुम्हें
और तुम झेलते रहते हो
बेखबर मजबूर होकर!
वीकेंड होम या मामा घर
लोग अब वीकेंड होम में जाने लगे
कभी जो मामा नानी के यहां जाते थे
पैसे ने होम तो दे दिया, पर
मामा नानी का साथ कैसे खरीदोगे?
समय मिलता नहीं है बाजार में
बोलो फिर कैसे खरीदोगे?
वो शाम को बैठना चौकी पे
और साथ में वो नानी की चाय
वो मामा की तीखी खट्टी मूढ़ी मिक्चर
बोलो वो सबकुछ कैसे खरीदोगे ?
वो शाम को जाना हाट बाज़ार
वो गर्म समोसे जलेबी खाना
क्या वो खरीदोगे वीकेंड होम में?
चलो–चलो, हो आओ मामा के घर
भागते वक्त से वक्त निकाल के,
नहीं तो ये वक्त सालों साल
और भी अपनी कीमत
दुगुनी–चौगनी किए जा रहा,
तो चलो, हो भी आओ!!
छोटा ही सही, भगवान है!
अरे दुनियावालों किसे भगवान मान बैठे हो
वो जो दिखता नहीं, कुछ कहता नहीं
और उसे नहीं मानते हो जो
दुख और बीमारी में साथ है तेरे
वही अपने, जो हाल चाल पूछते हैं
कम अज़ कम उन्हें भी
“छोटा” ही सही भगवान समझ लो
रूह तक की यात्रा
अरे नासमझ किसे काफिर कहता है तू
जबकि तू भी नहीं बदन ये, और मैं भी नहीं
जबकि तुझमें भी है रूह, व मुझमें भी वही
और ये रूह जुदा होकर हमसे, मरने पर
गुम हो जाता है कायनात में एक–सा
फिर हम तुम हुए, अलग कैसे?
अरे नासमझ किसे कहता है फिर काफिर तू
कभी टटोल भी ले ज़मीर को, झकझोरकर
फर्ज़ का संस्कार
हम धन्य हैं तेरे कोख से आए हैं मां
और फक्र है हमें तेरे दिए संस्कार पे
जिसके दम इस काबिल बड़ा हुआ
के अब तुम्हें तुम्हारी सेहत देकर मां
अपनी ही हसीं लौटा लाया हूं और
घर की खुशी थोड़ी बढ़ा पाया हूं मां
दिशा का ज्ञान, दुःख से
दुःख भी तो है मित्र,
एक सच्चा मित्र!!
बता जाता है के
जैसा चल रहा
जहां चल रहा
वो ठीक नहीं है!
चल, बदल रास्ते
उस और
जो सुख की ओर
ले जाए तुम्हें!
इंसान सच्चे रिश्तों का
वफ़ा की उम्मीद करते हो यहां?
दोस्ताने की बात करते हो यहां?
किस जमाने की बात करते हो यहां?
बदले हैं सब के रंग, चढ़े हैं नए ढंग
कुछ मजबूरियां या बहुत तरकीबियां हैं
पता नहीं, पर फीकी हुई नजदीकियां हैं
खुश तो न हो तुम इससे, और ना ही हम
क्योंकि,
रिश्तों में सच्चे सुकून के लिए
खांटी इंसान ही दूंढते हैं हम !!
अधूरा के मजे
आदमी अधूरा ही रहता है
पूरा होना तो पूरा छलावा है
शायद चाहता भी यही है वो
तड़पते रहने के सुरूर में;
आख़िर शिकायतों के भी
तो मज़े लेता है आदमी!
बच्चे की आविष्कारी सोच
मासूम बच्चे ने फूल रगड़कर
खुशबू की पानी बना ली
बहुत इतराया इसपे और
महक ले लेके बताया –है ना यही परफ्यूम?
मैंने भी झट से भर दी हामी ,
और रूबरू हो गया खुद भी
अपने बचपन वाली खुशी से
परेशानियों से मुक्ति
एक रात
मैं कुछ परेशान था
परेशान इसलिए नहीं
कि परेशानियां मेरे पीछे थी
परेशान इसलिए
की मैं परेशानियों के पीछे था
तभी एक आवाज आई
और मैं रुक गया
और
मेरी परेशानियां दूर जाती रही
जनचेतना का उत्थान
जाने क्या सुकून मिला
धर्मगुरुओं को, नेताओं को?
बांटकर हम मानव को
बांटकर समाज को, देश को
धर्म तो कहीं कहा नहीं
के बंटो और लड़ो
गर कहा है तो फिर
वो धर्म ही कहां?
धर्म तो देता है अच्छे उपदेश
प्यार व शांति का ही संदेश
जन्म का रास्ता भी है एक
मां का औद्र
और
मौत भी ले जाती है
एक ही जगत की गोद में
भस्म कर या सुलाकर
यानि
उदगम और अंत दोनों एक हैं
बीच के रास्ते के लक्ष्य भी एक हैं
– अच्छा मानव बनना
फिर बांटना किसलिए,
और बंटना क्यों?
जाने क्यों बांटने की ज़िद है
चंद लोगों ने जिसे रोज़गार बना लिया
सुलगाकर हमें, बांटकर हमें
क्योंकि वो ख़ुद समग्रता में
सोच नहीं सकता
और हमें धकेल देता है
जहन्नुम में
जीने को मजबूर,
और ख़ुद
मजे लेता है
सोच की सफाई
सोच की परिभाषा
पूरी होती है
दिशा से और दशा से
हमारे चेहरे के पीछे
असली चेहरा तो
सोच ही है
दशा जो अभी इस पल में है
वर्तमान से अनुनित करो
वर्तमान में सम्मिलित करो
पूरी चेतना से सींचकर
जैसे होते हो तुम
प्रार्थना भाव में
दिशा, जो तय हुई तुम्हारी
तुम्हारे विचारों से
तुम्हारी दुनियां की समझ से
प्रश्न करो, क्या सही भी है?
या वो भी ज़िद्दी गुड़िया बनी है
शायद, हां ही
तो समझ बड़ी बना भी लो
परिस्थितियों से ऊपर उठकर,
फिर दिशा संस्कृत हो जायेगी
क्योंकि सोच समृद्ध हो जाएगी
प्रेम की दिव्यता
क्या कहूं तूझसे?
कैसे कहूं?
शायद कमजोर हूं, या असमर्थ हूं
उस भव्य स्निग्धता को दर्शाने में l
या फिर भाषा ही इतनी योग्य नहीं?
कभी सोचूं
“मौन” रहकर ही बतला दूं
चेहरे के बने चिन्हों से,
आकृतियों से, जो तुम पढ़ पाओ
उन भावों के पीछे छिपे शब्दों को
गर रहस्य ही रहे तो रहे बस मेरे लिए
नहीं कुछ भी तुम्हारे लिएतूने आईना पैमाने
तुम्हीं ही तो हो, समझना है जिसे
पर कभी ये भी लगता है
ये मौन भी है रूखा उपाय
उसकी व्यंजना हेतु l
फिर कैसे कहूं?
क्या उड़ते चिड़िया को देखूं
या नीले आकाश के तले
घुमड़ते बादल के टुकड़े को देखूं
जो संग्रहित हो रहे हैं
और
जिससे छनकर आ रही है
सूर्य की लालिमा
कितना भव्य है यह मिलन!
शायद कह जाती है मेरी बात
क्या तुमने सुना भी?
एक लम्हे की जुबां
याद नहीं कब गुजरा
वक्त का एक नन्हा लम्हा
अभी अभी तो आया
चल गुज़रा
शायद रूठकर
किसी ने हाल पूछा नहीं
सब थे बहुत व्यस्त
कह गया
तुमने तबज्जो दी नहीं
मोती बनकर
आया था सजाने
अब नाप लिया रास्ता…
सबने ऐसा ही किया
उसके साथ
और फिर
वो गुजरते हुए
छोड़ दिया
ठहरना, मेरे पास
दिवंगत मां की याद
ए जहां ! कहां ढूंढू अपनी मां को
ए जहां! कहां ढूंढू उस ममता को
ए जहां! कहां ढूंढू उस हिफाजत को
ए जहां! कहां ढूंढू उस हिम्मत को
कहां ढूंढू उन आंखों की चमक को
एक पहर जो याद आई मां..तो बहुत रोया
दिल भर आया आंखों तक
अहसास इतनी गहरी देखी नहीं
हां मां की ही होगी
फिर सोच में आई एक मां की सोच
के क्यों न अब
अपने रिश्तों, अपने यारों
अपने सहयोगियों का
“कुछ मां” ही बन जाऊं मैं